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~ कभी कभी खुछ ख़याल टकराते रहते हैं, आपको उन्हीं खयालों से रूबरू कराने की ख्वाहिश लिए ये ब्लॉग आपकी खिदमत में हाज़िर है

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Category Archives: Uncategorized

मझधार

16 Monday Mar 2020

Posted by फणि राज in Uncategorized

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भावों का मोल नहीं है, 

शब्दों पर बात अड़ी है

दो पाटों के मध्यांतर

ये जीवन नाव खड़ी है

उन्मादी लहरें उठती हैं

हो आतुर मुझे डुबोने को

कैसे ये पतवार चलेगी

हैं तीर नहीं मिलने को

छूटें हैं कूल किनारे

हम दूर निकल आये हैं

तूफानों में कश्ती है

घनघोर जलद छाये हैं

अब आस एक बची है

हो पार या कि घिर जाएं

डूबें हम कूलंकषा में

या कोई किनारा पाएं

जीवन की नाव निकालूँ

या सागर में स्वयं समाऊँ

दुविधा में मेरा मन है

भिड़ू या भीरू कहलाऊँ

यादों की नॉवेल

14 Friday Apr 2017

Posted by फणि राज in Uncategorized

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बड़ी अजीब होती हैं पुरानी यादें, सामने आती हैं ऐसे
कि जैसे गुमी हुयी किताब के सफ्हे पलट रहा हो कोई
और जानी पहचानी कहानियों का, किरदारों का हुजूम
आँखों के सामने से गुज़रता चला जाता है
और ये दिल एक बचकानी सी ख्वाहिश में जिए जाता है
एक बार फिर से उसी पल में समा जाऊं मैं
और एक किरदार उस कहानी का हो जाऊं मैं
मगर ये वक़्त का दस्तूर है और हकीकत की ज़मीन
के बस उन यादों को समेट कर चलने के सिवा
और कोई चारा नहीं वक़्त के बढ़ने के सिवा
बस उसी याद की नॉवेल को करीने से सजाते रहना
और उन्ही किरदारों संग जीस्त बिताते रहना

22 Saturday Nov 2014

Posted by फणि राज in Uncategorized

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अरसा हुआ अलफ़ाज़ से कुछ गुफ्तगू करे

मुद्दत हुयी है हर्फ़ की सोहबत लिए हुए

गाँव मेरा बूढा हो चला है

08 Monday Oct 2012

Posted by फणि राज in Uncategorized

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Image

गाँव मेरा बूढा हो चला है
नयी कोपलें अब कहाँ आती है इसमें
बस पुरानी कुछ शाखें ही बची हैं
वो भी ज़र्ज़र हो गयी हैं
न वो जोश है न ही वो रंग
वो तो गनीमत है
कि आते जाते त्यौहार
थोडा रंग, थोड़ा जूनून भर जाते हैं
बहुत छोटा बसंत आता है
ये थोड़ा जवान दिखने लगता है
पर त्योहारों के जाने के बाद
यहाँ हमेशा पतझड़ सा मौसम है
गाँव के बूढ़े इकट्ठे हो बूढ़े पेड के नीचे
अपने जिंदगी के अंतिम दिनों कों गिनते हैं
और अपनी जवानी की यादें बुनते हैं
मुझे है याद दिन जो बीते थे यहाँ पर
वो हंसना खेलना कबड्डी, पिट्टो हमारा
सडको पर खेलते बच्चे अब दिखते कहाँ हैं
वो राजनीति पर गहम चर्चे होते कहाँ है
अभी तक गाँव की जो तस्वीर
मेरे ज़हन में बसी थी
वो झूठी लगने लगी है
अब आया हूँ तो लगता है
कि गाँव मेरा बूढा हो चला है

कंक्रीट के जंगल

02 Tuesday Oct 2012

Posted by फणि राज in Uncategorized

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कंक्रीट के जंगल

कौन कहता है जंगल बसाए नहीं जाते
हमारे शहरों को देखो कंक्रीट के जंगल खड़े हुए हैं
फर्क इतना है की इनमे स्वच्छंदता नहीं  है
ये जंगल पिंजरों से बने हैं
जिनमे प्रवासी पंछी आ कर बसेरा डालते हैं
और हमेशा की कैद को स्वयं ही अपनाते हैं
‘और’ की चाह में आते हैं अपने घर से दूर
फिर भूल जाते हैं वो चहचहाना, गाना
मैं भी आज घर से मीलों दूर एक आशियाना ढूंढ रहा हूँ
उसी कंक्रीट के जंगल में हमेशा कैद होने के लिए

दुनिया ने मुझको हाय ये क्या क्या बता दिया

02 Thursday Aug 2012

Posted by फणि राज in Uncategorized

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जिसके भी जी में आया मुझे वो बता दिया
दुनिया ने मुझको हाय ये क्या क्या बता दिया 
 
हिन्दू या मुसलमान ही बस बच गए यहाँ
इंसान को ढूँढा तो मुझे काफिर बता दिया 
 
करते ख़ुदा ख़ुदा पर खुद की ही सोचते 
सच कर दिया बयान तो साधू बता दिया
 
इश्वर और अल्लाह के घर बन रहे यहाँ 
इंसान को फूटपाथ की चादर बता दिया 
 
सिस्टम की खिलाफत में जो आवाज़ की बुलंद 
सिस्टम के नुमाइंदो ने बागी बता दिया 
 
थक कर ज़रा इस भीड़ से हो दूर जो बैठा 
इस भीड़ ने न देर की पागल बता दिया 
 
खुद को घिसा है मैंने इस दुनिया की संग पर 
खुशबू जो आयी मुझसे तो ‘चन्दन’ बता दिया

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