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~ कभी कभी खुछ ख़याल टकराते रहते हैं, आपको उन्हीं खयालों से रूबरू कराने की ख्वाहिश लिए ये ब्लॉग आपकी खिदमत में हाज़िर है

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Category Archives: कविता

उनका सलाम आया नहीं

28 Tuesday May 2019

Posted by फणि राज in कविता, ग़ज़ल

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बड़ी मुद्दत हुई उनका सलाम आया नहीं
आज यूं लगता है मुझे, वो मकाम आया नहीं

सोचते ही सोचते हो जाती है भोर
सूना दरवाज़ा कहता है कि वो आया नहीं

इंतज़ार में रकीब हालत ये मेरी हो गई
अब जो आया तो कहूंगा साथ हमसाया नहीं

इंतज़ार ए वस्ल में सोया नहीं मैं उम्र भर
नींद से जागा नहीं और नींद भर सोया नहीं

अमीरी – गरीबी

14 Monday Nov 2016

Posted by फणि राज in कविता, ग़ज़ल

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गरीबी भूखे रहने के हज़ारों गुर सिखाती है
अमीरी देख कर फिर अपनी जेबें भरती जाती है

अगरचे मुल्क की जानिब कोई देखे बद-निगाही से
गरीबी है जो अपना सर वतन को करती जाती है

अमीरों के घरों में घी का दिया हर रोज़ जलता है
गरीबी एक एक लकड़ी जोड़ कर चूल्हा जलाती है

वतन के नाम की गाते सभी हैं, और गाएंगे
गरीबी अपनी हड्डी को बजा कर धुन बनाती है

वतन को बेच कर वो अपना दामन भर चुकी होगी
गरीबी अब भी क़तारों में खड़ी हो बिकती जाती है

वो सीना ठोक कर कहते हैं कुछ दिन बीत जाने दो
गरीबी मुस्कुरा कर एक एक दिन काटे जाती है

अमीरी हुक्मरानों संग अपना बिस्तर बदलती है
यां चादर बिना जग कर गरीबी रातें बिताती है

तुम्हें क्यों दर्द होगा, तेरे घर पकवान बनते हैं
गरीबी अपने बच्चों को भूखे ही सुलाती है

अमीरी गिन सको तो गिन लो अपने दिन शाहजहानी के
गरीबी आ रही है, देख वो इंक़लाब लाती है

गरीबी और अमीरी रिश्ते में बहनें है लेकिन
एक दिल को जलाती है और दूजी ‘चन्दन’ जलाती है

भारत क्या है?

08 Saturday Oct 2016

Posted by फणि राज in कविता

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यह भारत क्या है? कौन है ये?क्या यही विध्वंसक सोच है ये?
हिंसा की भाषा, हिंसक कृत्य
ये कैसी सोच, यह कैसा दृश्य
भारत के बच्चों को देते कष्ट
फिर कहो ‘भारत की जय’ स्पष्ट
भारत की परिभाषा किसने सिखलाई
टैगोर की कही बात याद है आई
यह देश केवल धरा नहीं, इसके जन हैं
धरा शरीर मात्र है, ‘आत्मा’ इसके जन हैं
जनता से सम्पूर्ण है होता ये जनतंत्र
भारत की प्रगति का यही एक मंत्र
भारत की परिभाषा देखो ये ‘दिनकर’ का है
‘नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है ‘
जनतंत्र समृद्ध है होता ‘विमर्श विचारी’ से
यह बनता है यहां के लोगों से, नर नारी से
यह देश संकीर्ण सोच का प्रतीक नहीं
देश नहीं सम्पूर्ण गर ‘विचार’ निर्भीक नहीं

नींद से प्रेम

06 Thursday Jun 2013

Posted by फणि राज in कविता

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neend

प्रिय हो तुम, प्रियतम हो मेरी
तुम स्वप्नों का आधार प्रिये
तुझसे मिलने के बाद प्रिये मैं
सुख दुःख अपना भूल चूका
तेरी इस कोमल छाया में मैं
दुर्गुण अपने भूल चूका
तुझसे मिलने की बेला में मैं
भूला जग का खेल प्रिये
प्रिय हो तुम, प्रियतम हो मेरी
तुम स्वप्नों का आधार प्रिये
जग लाख सताए ताने दे
तुम तनिक रोष न दिखाती हो
हो कैसी कठिन  भी बेला पर
तुम अपने पास बुलाती हो
स्नेह तुम्हारा न होता कम
चाहे दिन हो या रात प्रिये
प्रिय हो तुम, प्रियतम हो मेरी
तुम स्वप्नों का आधार प्रिये
जो दुनिया मैं न देख सका
तेरी संगत उसे दिखाती है
कोई वैद हकीम करेगा क्या
जब कभी तू बैर दिखाती है
किसी और में होगी बात कहाँ
जो तुझमे हैं मेरी बात प्रिये
प्रिय हो तुम, प्रियतम हो मेरी
तुम स्वप्नों का आधार प्रिये
तुम ‘नींद’ ही मेरी प्रियतम हो
तुझसे ही अपना प्रेम प्रिये

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