उम्र-ए-दराज़ करेंगे क्या

उम्र-ए-दराज़ करेंगे क्या
जियेंगे  क्या, मरेंगे क्या 

दिल चाक औ चारागर न मिले 
दिल चाक अब सियेंगे क्या 

हमसफ़र ही हमखयाल न हो 
तो संग सफर करेंगे क्या 

जीते हैं कि नब्ज़ चालू है 
रुक गई तो हम मरेंगे क्या

सब चल दिए हम भी चलते हैं 
आप अब भी  यहाँ रुकेंगे क्या 

दिल टूटने से नाखुश हैं 
चाक-ए-जिगर सुनेंगे क्या 

शर्मा गयी हयात उनसे
मेरे मेहबूब से मिलेंगे क्या 

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मझधार

भावों का मोल नहीं है

शब्दों पर बात अड़ी है

दो पाटों के मध्यांतर

ये जीवन नाव खड़ी है

उन्मादी लहरें उठती हैं

हो आतुर मुझे डुबोने को

कैसे ये पतवार चलेगी

हैं तीर नहीं मिलने को

छूटें हैं कूल किनारे

हम दूर निकल आये हैं

तूफानों में कश्ती है

घनघोर जलद छाये हैं

अब आस एक बची है

हो पार या कि घिर जाएं

डूबें हम कूलंकषा में

या कोई किनारा पाएं

जीवन की नाव निकालूँ

या सागर में स्वयं समाऊँ

दुविधा में मेरा मन है

भिड़ू या भीरू कहलाऊँ

वो कौन है

पस-इ-आइना जो खड़ा है, वो कौन है
वो जो मेरी तरह दिखता है, वो कौन है

वही है, हाँ वही है जिससे मैं हूँ वाकिफ
वो जिसके चेहरे पे शिकन है, वो कौन है

याद है मुझे उसका मुस्कुराता चेहरा
वो जो आज भी शादाब है, वो कौन है

बड़े अदब से मिला करता था कल तक
आज दूर कोने में खड़ा है, वो कौन है

कभी उसके रकीबों में शामिल था मैं भी
जो दुश्मन की तरह देख रहा है, वो कौन है

अजीब होती है ये मज़हब की दीवार ऐ दोस्त
मेरे तेरे दरम्यान डाला जिसने, वो कौन है

चलो तोड़ दें दीवार सभी, फिर साथ हो लें
चले इंसानियत का ये पहला कदम, वो कौन है

नहीं है, न रहेगा अदम से वास्ता ‘चन्दन’ तुझको
चले इंसानियत की राह हमेशा, वो कौन है

कुरबतों के बाद भी कुछ मस्सला सा लगता है

कुरबतों के बाद भी कुछ मस्सला सा लगता है।
पास हैं इतने मगर इक फासला सा लगता है।

नजदीकियों के समन भी दूरियों का सिलसिला
बावफा है दोस्त फिर क्यूं बेवफा सा लगता है।

दश्त में डूबे हुए हैं, दरिया में भी प्यास है
ये जहां तो अब मुझे कुछ बुझा बुझा सा लगता है।

दिल रकीबों में भी इक अजनबी बन के बैठा है
रेहगुजर का वो अनजाना मुझे सगा सा लगता है

ता-हद्द-ए-नज़र कुछ भी सुझाई नहीं देता
इंसानियत का नाम-ओ-निशाँ दिखाई नहीं देता

उस शय के लिए हो जाते हैं ख़ूं के प्यासे
जिस शय का कोई वुजूद दिखाई नहीं देता

उनका सलाम आया नहीं

बड़ी मुद्दत हुई उनका सलाम आया नहीं
आज यूं लगता है मुझे, वो मकाम आया नहीं

सोचते ही सोचते हो जाती है भोर
सूना दरवाज़ा कहता है कि वो आया नहीं

इंतज़ार में रकीब हालत ये मेरी हो गई
अब जो आया तो कहूंगा साथ हमसाया नहीं

इंतज़ार ए वस्ल में सोया नहीं मैं उम्र भर
नींद से जागा नहीं और नींद भर सोया नहीं

यादों की नॉवेल

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बड़ी अजीब होती हैं पुरानी यादें, सामने आती हैं ऐसे
कि जैसे गुमी हुयी किताब के सफ्हे पलट रहा हो कोई
और जानी पहचानी कहानियों का, किरदारों का हुजूम
आँखों के सामने से गुज़रता चला जाता है
और ये दिल एक बचकानी सी ख्वाहिश में जिए जाता है
एक बार फिर से उसी पल में समा जाऊं मैं
और एक किरदार उस कहानी का हो जाऊं मैं
मगर ये वक़्त का दस्तूर है और हकीकत की ज़मीन
के बस उन यादों को समेट कर चलने के सिवा
और कोई चारा नहीं वक़्त के बढ़ने के सिवा
बस उसी याद की नॉवेल को करीने से सजाते रहना
और उन्ही किरदारों संग जीस्त बिताते रहना

अमीरी – गरीबी

गरीबी भूखे रहने के हज़ारों गुर सिखाती है
अमीरी देख कर फिर अपनी जेबें भरती जाती है

अगरचे मुल्क की जानिब कोई देखे बद-निगाही से
गरीबी है जो अपना सर वतन को करती जाती है

अमीरों के घरों में घी का दिया हर रोज़ जलता है
गरीबी एक एक लकड़ी जोड़ कर चूल्हा जलाती है

वतन के नाम की गाते सभी हैं, और गाएंगे
गरीबी अपनी हड्डी को बजा कर धुन बनाती है

वतन को बेच कर वो अपना दामन भर चुकी होगी
गरीबी अब भी क़तारों में खड़ी हो बिकती जाती है

वो सीना ठोक कर कहते हैं कुछ दिन बीत जाने दो
गरीबी मुस्कुरा कर एक एक दिन काटे जाती है

अमीरी हुक्मरानों संग अपना बिस्तर बदलती है
यां चादर बिना जग कर गरीबी रातें बिताती है

तुम्हें क्यों दर्द होगा, तेरे घर पकवान बनते हैं
गरीबी अपने बच्चों को भूखे ही सुलाती है

अमीरी गिन सको तो गिन लो अपने दिन शाहजहानी के
गरीबी आ रही है, देख वो इंक़लाब लाती है

गरीबी और अमीरी रिश्ते में बहनें है लेकिन
एक दिल को जलाती है और दूजी ‘चन्दन’ जलाती है

तुझसे प्यार क्यूँ न हो

दिल मेरा ये जार जार क्यूँ न हो
टूट कर यूँ खार खार क्यूँ न हो

दिल्लगी तो कर चुके तुझसे रकीब
दिल मेरा अब तार तार क्यूँ न हो
आपकी सूरत में ही कुछ बात है
दिल का लगना बार बार क्यूँ न हो
आपकी गुस्ताख नज़रें और वो कातिल अदा
गो आपसे फिर प्यार प्यार क्यूँ न हो
तुम ही मेरी हीर हो, लैला हो तुम
लब पे मेरे नाम तेरा बार बार क्यूँ न हो
अक्स तेरा आँख में यूँ बस चुका
अश्क में भी यार यार क्यूँ न हो
तू ही है महताब भी मोहसिन भी तू

महफिलों में ज़िक्र तेरा बार बार क्यूँ न हो

‘चन्दन’ की शीतलता और ‘सुगंध’ हो तुम
मेरी ग़ज़लों में तेरा शुमार क्यूँ न हो…

भारत क्या है?

यह भारत क्या है? कौन है ये?क्या यही विध्वंसक सोच है ये?
हिंसा की भाषा, हिंसक कृत्य
ये कैसी सोच, यह कैसा दृश्य
भारत के बच्चों को देते कष्ट
फिर कहो ‘भारत की जय’ स्पष्ट
भारत की परिभाषा किसने सिखलाई
टैगोर की कही बात याद है आई
यह देश केवल धरा नहीं, इसके जन हैं
धरा शरीर मात्र है, ‘आत्मा’ इसके जन हैं
जनता से सम्पूर्ण है होता ये जनतंत्र
भारत की प्रगति का यही एक मंत्र
भारत की परिभाषा देखो ये ‘दिनकर’ का है
‘नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है ‘
जनतंत्र समृद्ध है होता ‘विमर्श विचारी’ से
यह बनता है यहां के लोगों से, नर नारी से
यह देश संकीर्ण सोच का प्रतीक नहीं
देश नहीं सम्पूर्ण गर ‘विचार’ निर्भीक नहीं